भक्ति का सौदा
**भक्ति और आस्था: सत्कर्म का मार्ग, अंधविश्वास नहीं**
आज के युग में जब समाज तीव्र गति से भौतिक प्रगति कर रहा है, तब भी आस्था और भक्ति का प्रभाव मानवीय जीवन में गहराई से विद्यमान है। मंदिरों में भीड़, तीर्थों की यात्राएँ, हवन-पंढालों के आयोजन और धार्मिक गुरुओं की कथाओं में लाखों का जमावड़ा—यह सब हमारे भीतर के विश्वास के प्रतीक हैं। लेकिन इसी आस्था का एक दूसरा चेहरा भी है, जो हमें सोचने पर मजबूर कर देता है—क्या भक्ति केवल धन और ऐश्वर्य प्राप्त करने का माध्यम बन गई है? क्या लोगों की यह धारणा कि “भक्ति से करोड़पति बना जा सकता है” किसी अन्धविश्वास की मानसिकता नहीं है?
#### **भक्ति: एक आत्मिक अनुशासन**
भक्ति का वास्तविक स्वरूप आत्मिक अनुशासन में निहित है। यह मनुष्य को लोभ, क्रोध, ईर्ष्या जैसे नकारात्मक गुणों से दूर ले जाकर उसे आत्मशुद्धि की ओर प्रेरित करती है। संत तुलसीदास ने कहा था—“भक्ति करै सु सुख उपजै, मिटै पाप दुख भारी”—अर्थात् भक्ति का उद्देश्य मन के विकारों को दूर कर जीवन में शांति लाना है, न कि धन-संपत्ति की कामना करना।
भक्ति का अर्थ भगवान से लेन-देन नहीं, बल्कि समर्पण है। सच्ची आस्था वही है जिसमें व्यक्ति भगवान से कुछ माँगने के बजाय केवल “उनके मार्ग पर चलने” का संकल्प करे।
#### **अंधविश्वास: जब आस्था भटक जाती है**
अंधविश्वास तब जन्म लेता है जब मनुष्य का विश्वास तर्क और ज्ञान से अलग होकर डर, लोभ या दिखावे में बदल जाता है। आज कई लोग यह मानते हैं कि मंदिर में हजारों रुपये चढ़ाने से, या किसी ‘विशेष पूजा’ से, वे रातोंरात अमीर हो सकते हैं। यह धारणा आस्था नहीं, बल्कि अंधविश्वास है, क्योंकि यह कर्म के सिद्धांत को नकार देती है।
भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने स्पष्ट कहा है—“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” इसका सीधा अर्थ है कि मनुष्य को केवल अपने कर्म पर अधिकार है, फल देने वाला परमात्मा है। जब हम कर्म छोड़कर केवल चमत्कार की प्रतीक्षा करने लगते हैं, तब आस्था अंधविश्वास का रूप ले लेती है।
#### **भक्ति का सम्बन्ध धन से नहीं, मन से है**
जिस प्रकार आग से केवल उसे उष्मा मिलती है जो उसके पास जाता है, उसी प्रकार भक्ति से केवल उन्हें प्रकाश मिलता है जो उसके अर्थ को समझते हैं। धन, पद या सफलता भक्ति का लक्ष्य नहीं, बल्कि उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले सद्कर्मों का फल हो सकते हैं। जो व्यक्ति भक्ति के माध्यम से संयम, सत्य, ईमानदारी और परोपकार जैसे गुणों को अपनाता है, वही जीवन में स्थायी सफलता प्राप्त करता है।
आस्था यदि हमें सत्कर्मों की प्रेरणा देती है—जैसे दूसरों की मदद करना, ईमानदार रहना, समाजोद्धार में योगदान करना—तो वह सच्ची है। लेकिन जब वही आस्था हमें ताबीज, टोने-टोटके या किसी बाबा की मनोकामना पूरी करवाने की दुकानों तक सीमित कर दे, तो वह अंधविश्वास बन जाती है।
#### **धन की प्राप्ति का वास्तविक सूत्र: कर्म और विवेक**
इतिहास और धर्मग्रंथ, दोनों इस बात के साक्षी हैं कि सच्चे भक्त भी कठिनाइयों से अछूते नहीं रहे। भगवान राम को चौदह वर्ष का वनवास मिला, पांडवों को तेरह वर्ष का निर्वासन झेलना पड़ा, मीरा ने विष का प्याला पिया—फिर भी उनका विश्वास अडिग रहा। यदि भक्ति का अर्थ धन या वैभव होता, तो ये सभी उदाहरण निरर्थक हो जाते।
सफलता और समृद्धि का मूलभूत नियम है—परिश्रम और विवेक। भक्ति व्यक्ति को इन दोनों का बल देती है, परंतु स्वयं भक्ति धन की गारंटी नहीं है। जो व्यक्ति आस्था के साथ कार्य करता है, वही अंततः अपने श्रम के फल से समृद्ध होता है। इसीलिए सच्ची श्रद्धा मनुष्य को *कर्मयोगी* बनाती है, *भ्रमित याचक* नहीं।
#### **समाज में फैलती अंधभक्ति की समस्या**
आज के डिजिटल युग में कई ‘गुरु’ और ‘संत’ भक्ति को व्यावसायिक रूप देकर लोगों की भावनाओं का दोहन कर रहे हैं। वे यह भ्रम फैलाते हैं कि थोड़ी पूजा या महंगे यज्ञ से व्यक्ति की आर्थिक स्थिति बदल सकती है। ऐसे प्रचार-प्रसार लोगों को आलसी बनाते हैं और कर्म से विमुख कर देते हैं। यह समाज को अधोगति की ओर ले जाने वाला मानसिक विष है।
यह आवश्यक है कि समाज में शिक्षा, विवेक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आस्था की परिभाषा को स्पष्ट किया जाए। धरोहर के रूप में मिली धार्मिक परंपराओं का सम्मान करते हुए भी हमें यह समझना होगा कि भगवान हमारी मेहनत और नीतिपूर्वक किए गए कार्यों के माध्यम से ही हमें आशीर्वाद देते हैं।
#### **भक्ति का उद्देश्य: आत्मानुशासन और मानवीयता**
सच्ची भक्ति व्यक्ति को भीतर से विनम्र बनाती है, और समाज के प्रति जिम्मेदार। जब व्यक्ति भगवान में विश्वास रखता है, तो वह अन्याय, छल और लोभ से दूर रहना चाहता है। वह अपने कर्म को ईश्वर के प्रति समर्पण समझकर ईमानदारी से निभाता है। यही आस्था का सर्वोच्च रूप है — जहाँ उपासना का अर्थ केवल पूजा नहीं, बल्कि सेवा है।
यदि कोई व्यक्ति यह सोचता है कि वह भक्ति के बदले धन प्राप्त करेगा, तो वह वास्तविक भक्ति से वंचित रहता है। क्योंकि जहाँ स्वार्थ जुड़ा होता है, वहाँ समर्पण नहीं जन्म लेता। भक्ति से व्यक्ति का मन निर्मल होता है और वही निर्मलता उसे ऐसे कर्मों की ओर ले जाती है जो अंततः समृद्धि—भले ही भौतिक न सही, लेकिन आत्मिक—प्रदान करती हैं।
#### **निष्कर्ष: आस्था को विवेक से जोड़ें, अंधविश्वास से नहीं**
भक्ति और आस्था का उद्देश्य मनुष्य को निष्ठावान, करुणामय और परिश्रमी बनाना है। यदि लोग यह मानने लगें कि केवल पूजा-पाठ से धन आएगा, तो यह सोच जिम्मेदारी से पलायन है। ऐसे विचारों से न सिर्फ व्यक्ति बल्कि पूरा समाज भ्रमित होता है।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि भक्ति कोई व्यापार नहीं, बल्कि जीवन का अनुशासन है। अंधविश्वास का त्याग और विवेक का उपयोग ही सच्ची श्रद्धा की पहचान है। जब आस्था कर्म से जुड़ती है, तभी वह फल देती है। और जब वह अंधविश्वास में बदलती है, तो मनुष्य को निर्बल बना देती है।
अतः यह धारणा कि “भक्ति से करोड़पति बना जा सकता है”, न केवल तर्कहीन है बल्कि उस भक्ति की आत्मा के विरुद्ध भी है जो मनुष्य को सत्कर्म, परोपकार और आत्मोन्नति की दिशा में प्रोत्साहित करती है। सच्ची आस्था हमें ईश्वर के करीब नहीं, बल्कि अपने बेहतर स्वरूप के करीब लाती है—जहाँ इच्छाएँ नहीं, केवल कर्तव्य का भाव रह जाता है।
***
भक्ति सौदा नहीं
भक्ति कोई सौदा नहीं, सौंपना है खुद को सरल भाव में,
जहाँ नहीं तिजोरी खुलती, खुलता है मन प्रभु के नाव में।
कर्म से खिलती आस्था, मशीन नहीं कोई वरदान की,
भक्ति वो दीया है अंदर, जलता मनुज के ज्ञान की।
मंदिर में रुपया चढ़ाने से, सुख नहीं उतरता आसमान से,
धरती पर जो सींचे श्रम से, अमृत झरता उसी किसान से।
भक्ति की माला गिनने से पहले, अपने मन को परखो ज़रा,
क्या तुम लोभ से पूज रहे हो या सच्चे समर्पण से प्रभु को धरा?
अंधविश्वास के कोहरे में डगमग न होने दो अपनी सोच,
ईश्वर उसी के पास बैठा है, जो कर्म करे निष्काम रौश।
भक्ति से धन नहीं, मन का उजियारा मिलता है,
जो खुद को पहचान ले, वही सच्चा भाग्यविधाता मिलता है।
****
आर्यमौलिक
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें