कुर्सी छोड़..! बबाल व्यंग


व्यंग्य-स्तंभ

कुर्सी छोड़..! बबाल

“वोट चोर कुर्सी छोड़ : नारे का धुआँ और विपक्ष की फजीहत” (मेरी नज़र से)

मेरी आदत है सुबह उठते ही अख़बार के पन्नों में राजनीति का नाश्ता तलाशने की। कभी रोटी महँगी मिल जाती है, कभी गैस सिलेंडर का भाव जलन पैदा कर देता है। लेकिन इस बार जो परोसा गया, उसने तो दिमाग़ का ही तेल निकाल दिया।

पहले पन्ने पर मोटे-मोटे अक्षरों में छपा था—
“वोट चोर कुर्सी छोड़।”

पहली नज़र में लगा जैसे कोई नया मुहल्ले का खेल शुरू हो गया है। बचपन में हमने गली में यही तो चिल्लाया था—“पतंग चोर, डोर छोड़।” फर्क बस इतना है कि अब पतंग की जगह कुर्सी है और बच्चे की जगह नेता।

मैंने सोचा, लेखक की किस्मत देखो! जिस देश में बेरोज़गारी और महंगाई पर लिखना चाहिए, वहाँ मुझे नारे का अनुवाद करना पड़ रहा है।

“वोट चोर कुर्सी छोड़”—यह नारा सुनते ही मुझे हँसी भी आई और चिंता भी।
हँसी इसलिए कि यह सुनने में किसी नुक्कड़ नाटक का डायलॉग लगता है।
चिंता इसलिए कि जब विपक्ष का सबसे बड़ा हथियार सिर्फ नारा रह जाए, तो समझ लीजिए राजनीति का स्तर शून्य से भी नीचे जा चुका है।

एक लेखक की नज़र से देखूँ तो यह नारा सिर्फ एक लाइन नहीं, बल्कि पूरे विपक्ष का चरित्र प्रमाण पत्र है—
“हमारे पास कुछ कहने को नहीं, इसलिए हम सिर्फ चिल्लाएँगे।”

मैंने अपनी डायरी में लिखा—
राजनीति आज एक अखाड़ा है।
कुर्सी पहलवानों की लाठी है।
सत्ता पक्ष उसे पकड़कर बैठा है और विपक्ष छीनने की कोशिश कर रहा है।

लेकिन फर्क यह है कि सत्ता पक्ष पसीना बहा रहा है, और विपक्ष सिर्फ शोर मचा रहा है।
जैसे गाँव की चौपाल पर कोई बच्चा चीखे—“मेरा खिलौना लौटा दो!” और सामने वाला हँसकर कहे—“पहले रोना बंद कर, फिर खेलेंगे।”

मैं अक्सर अपनी कहानियों के लिए चाय की दुकान पर बैठता हूँ।
उसी रामलाल चायवाले ने कल कहा—
“साहब! नेता लोग ऐसे चिल्ला रहे हैं जैसे वोट किसी ने जेब से रुमाल की तरह निकाल लिया हो। पर असली चोर तो हमारी जेब काट रहा है—महंगाई के नाम पर, बिजली-पानी के बिल में। उस पर कौन नारा लगाएगा?”

उसकी बात सुनकर मैंने चाय की प्याली नीचे रख दी।
जनता की आवाज़ हमेशा सबसे सटीक व्यंग्य होती है।

लेखक होने के नाते मुझे याद है—नारे इस देश की राजनीति की विरासत हैं।

“गरीबी हटाओ।”

“काला धन वापस लाओ।”

“हर हाथ को काम।”

नारा बहुत गूँजा, पर नतीजे? गरीबी रही, काला धन काला ही रहा, और हाथ अब भी खाली हैं।
तो क्या “वोट चोर कुर्सी छोड़” इस परंपरा में नया मोती है या नया मज़ाक?

सच तो यह है कि यह नारा खुद ही अपनी आग में जलकर पलिता बन चुका है।
जितना जोर से विपक्ष इसे दोहराता है, उतना ही वह खोखला सुनाई देता है।

मेरी कलम यहाँ थोड़ी बेरहम हो जाती है। विपक्ष की हालत आज उस कवि जैसी है, जो मंच पर बार-बार एक ही कविता सुनाता है।
श्रोता पहले तालियाँ बजाते हैं, फिर ऊँघने लगते हैं, और आखिर में उठकर चले जाते हैं।

जनता भी अब ऊब गई है।
वह सोचती है—“भाई साहब! आपने इतना शोर मचाया, पर किया क्या?”
नेता जवाब नहीं दे पाते।
नतीजा यह कि हर बार जब वे “वोट चोर कुर्सी छोड़” चिल्लाते हैं, सत्ता पक्ष हँसकर कहता है—“लो, फिर वही पुरानी कैसेट बजा दी।”

मैं लेखक हूँ, पर इतना भोला भी नहीं कि सत्ता की मुस्कान न देख सकूँ।
वे चैन की बंसी बजा रहे हैं।
क्यों? क्योंकि उन्हें मालूम है कि विपक्ष नारे तक सीमित है।

कुर्सी पर बैठे लोग सोचते हैं—
“जब तक विपक्ष नारा लगाने में व्यस्त है, तब तक जनता असली मुद्दों पर सवाल नहीं पूछेगी।”

तभी मैंने सोचा, अगर हर समस्या का हल नारे से निकलने लगे तो क्या होगा?

दूध महँगा हुआ तो लोग कहेंगे—“दूध चोर डेयरी छोड़।”

ट्रेन लेट हुई तो यात्री चिल्लाएँगे—“समय चोर स्टेशन छोड़।”

डॉक्टर फीस बढ़ाए तो मरीज़ बोलेंगे—“इलाज चोर क्लिनिक छोड़।”

आप कल्पना कीजिए, पूरा देश सिर्फ नारों पर चल रहा है। तो फिर सरकार की जरूरत किसे है? बस एक माइक चाहिए और कुछ जोशीले गले।

मुझे चिंता यह है कि राजनीति का स्तर इतना गिर चुका है कि अब बहस मुद्दों पर नहीं, मुहावरों पर होती है।
संसद बहस का घर हुआ करता था, आज यह नारे की मंडी बन गया है।
नेता मुद्दों पर नहीं, तुकबंदी पर लड़ रहे हैं।

“वोट चोर कुर्सी छोड़” सुनते-सुनते मुझे डर लगता है कि आने वाली पीढ़ी सोचेगी—लोकतंत्र का मतलब है सिर्फ कुर्सी छीनो-छीनो का खेल।

एक लेखक के रूप में मेरा मानना है कि विपक्ष लोकतंत्र की रीढ़ है।
उसका काम है—

सत्ता की गलतियों को उजागर करना,

जनता की आवाज़ को बुलंद करना,

और सबसे जरूरी—एक ठोस विकल्प देना।

लेकिन आज विपक्ष सिर्फ शोर तक सीमित है। जनता पूछ रही है—“रोजगार, शिक्षा, महंगाई पर आपका प्लान क्या है?”
विपक्ष जवाब नहीं दे पा रहा।
यही उनकी सबसे बड़ी फजीहत है।

मैं अपनी डायरी में लिखता हूँ—

“वोट चोर कुर्सी छोड़” राजनीति का नारा नहीं, बल्कि लोकतंत्र की कमजोरी का आईना है।
सत्ता पक्ष कुर्सी से चिपका है, विपक्ष उसे खींचने में व्यस्त है, और जनता बीच में पिस रही है।
विपक्ष का असली काम सिर्फ विरोध नहीं, बल्कि विकल्प देना भी है।
राजनीति का स्तर तभी उठेगा जब विपक्ष अपनी भूमिका समझे और जनता के लिए सच्चा एजेंडा पेश करे।

मेरे लिए आज की राजनीति पर लिखना मज़ाक नहीं, जिम्मेदारी है।
और इस जिम्मेदारी के तहत मैं कहता हूँ—
अगर विपक्ष सिर्फ “वोट चोर कुर्सी छोड़” चिल्लाता रहा, तो जनता यही चिल्लाएगी—
“नेता चोर, भरोसा छोड़।”

समाप्त 

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