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भक्ति का सौदा

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**भक्ति और आस्था: सत्कर्म का मार्ग, अंधविश्वास नहीं** आज के युग में जब समाज तीव्र गति से भौतिक प्रगति कर रहा है, तब भी आस्था और भक्ति का प्रभाव मानवीय जीवन में गहराई से विद्यमान है। मंदिरों में भीड़, तीर्थों की यात्राएँ, हवन-पंढालों के आयोजन और धार्मिक गुरुओं की कथाओं में लाखों का जमावड़ा—यह सब हमारे भीतर के विश्वास के प्रतीक हैं। लेकिन इसी आस्था का एक दूसरा चेहरा भी है, जो हमें सोचने पर मजबूर कर देता है—क्या भक्ति केवल धन और ऐश्वर्य प्राप्त करने का माध्यम बन गई है? क्या लोगों की यह धारणा कि “भक्ति से करोड़पति बना जा सकता है” किसी अन्धविश्वास की मानसिकता नहीं है? #### **भक्ति: एक आत्मिक अनुशासन** भक्ति का वास्तविक स्वरूप आत्मिक अनुशासन में निहित है। यह मनुष्य को लोभ, क्रोध, ईर्ष्या जैसे नकारात्मक गुणों से दूर ले जाकर उसे आत्मशुद्धि की ओर प्रेरित करती है। संत तुलसीदास ने कहा था—“भक्ति करै सु सुख उपजै, मिटै पाप दुख भारी”—अर्थात् भक्ति का उद्देश्य मन के विकारों को दूर कर जीवन में शांति लाना है, न कि धन-संपत्ति की कामना करना।   भक्ति का अर्थ भगवान से लेन-देन नहीं, बल्कि...

स्याही के शब्द-2

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11-✍️ तलाश में उलझन रिश्तों की गहराई भूलकर, बंधन की मर्यादा तोड़कर, वो स्क्रीन पर सज रही है— मानो ज़िंदगी का सच अब कैमरे की झिलमिलाहट में ही छिपा हो। सोशल मीडिया के मंच पर फ़ूहड़ता का तमाशा बिक रहा है, जहाँ सादगी मज़ाक बन चुकी है, और उघाड़ापन ही "आधुनिकता" कहलाता है। कभी बहन, कभी बेटी, कभी माँ— इन रूपों की गरिमा कहाँ खो गई? किस तलाश में है वो? क्या कुछ पल की तालियों में उसकी आत्मा की प्यास बुझ जाएगी? शायद पहचान की भूख है, शायद अकेलेपन की चुभन है, या शायद दुनिया के शोर में अपने ही मौन को दबाने का प्रयास। पर क्या सचमुच यही तलाश है— कि रिश्तों की मर्यादाएँ गिरवी रखकर वह वर्चुअल तालियों का सौदा कर ले? या फिर यह भटकन है, जहाँ औरत अपनी असल ताक़त दिखावे की धूल में खो रही है। मर्यादा बोझ नहीं, बल्कि आत्मसम्मान की ढाल है। और जो उसे उतार फेंकती है, वह तलाश नहीं करती— बल्कि तलाश में खो रही है औरत। आर्यमौलिक ===🌸=== 12-✍️ इज्जत इज़्ज़त वो आईना है, जिसमें इंसान का असली चेहरा झलकता है, दरार पड़ जाए तो उम्रभर चमकता भी है, पर पहले जैसा नहीं लगता है। ये वो सुगंध है, जो बिन दिखे ह...

स्याही के शब्द-1

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1-✍️ बीमार मन की स्मृतियाँ बीमार मन की खिड़कियों पर स्मृतियों की धूल जमी रहती है, कभी कोई हंसी की आहट उस धूल में उँगलियाँ फेर जाती है, और कभी कोई रोष, शांत कोनों में फफूँदी बनकर उग आता है। स्मृतियाँ— वे अधूरी कविताएँ हैं जो लिखी तो गईं, पर कभी पूरी न हो सकीं। वे टूटे हुए सपनों की किरचें हैं जिन पर चलते-चलते मन के तलवे छिल जाते हैं। बीमार मन जानता है कि समय ही एक चिकित्सक है, पर समय की दवा धीरे-धीरे असर करती है— मानो गहरे कुएँ में डाली एक-एक बूंद पानी। कुछ स्मृतियाँ फफोलों जैसी हैं— छूने पर दर्द देती हैं, और कुछ, जैसे बुझ चुकी अग्नि की राख जो बस उँगलियों पर धूसर निशान छोड़ जाती है। बीमार मन फिर भी इन स्मृतियों को संजोए रहता है, मानो रोग ही उसकी पहचान हो, मानो दर्द ही उसके भीतर की अंतिम भाषा हो। आर्यमौलिक ===🌸=== 2-✍️ रुमानी यादों के पल धूप से छनकर आई कोई नर्म रोशनी, जैसे तुम्हारी हंसी का आख़िरी कतरा अब भी दिल में बस गया हो। पुरानी गलियों की हवा में, तेरे कदमों की सरसराहट आज भी सुनाई देती है। वो शामें—जहाँ वक्त रुकना चाहता था, और चाँद हमारी ख़ामोशी को तराशता था। कभी पत्तों प...

Home or Hotel

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🏵️ Poem: Home or Hotel 🏵️ On today's rushing streets, Relationships quietly sob in corners, Traditions lie buried under dust, And home—appears just like a hotel. No fragrance of mother’s kitchen lingers, No shadow of father’s protective embrace, Now only the clatter of gadgets is heard, Where once echoed the hymns of prayer. The threshold, once sanctified by blessings, Is now filled only with the thud of shoes, Rooms—like guest rooms, Where everyone comes, stays briefly, and leaves. Siblings’ playful banter is lost, Grandmother’s stories sleep in books, Amid the TV’s noise, songs are missing, Each soul now hums a solitary tune of loneliness. The definition of home has changed— Now it is not about love, But about keeping track of “when to come, when to go.” Once, home was the temple of the soul, Now it is merely a hotel room— Where the heart checks in, But warmth… checks out. — DB-Arymoulik --- A Comparative Discussion: Families Without Values vs. Joint Families In Ind...

कविता: घर या होटल

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🏵️ कविता : घर या होटल 🏵️ आजकल की भागती सड़कों पर, रिश्ते कहीं कोनों में सिसक रहे हैं, संस्कार धूल में दबे पड़े हैं, और घर—बस एक होटल-सा दिख रहा है। न माँ की रसोई की सुगंध है, न पिता के आँचल की छाँव, अब तो गैजेट्स की खनक सुनाई देती है, जहाँ पहले गूँजती थी आरती की ध्वनि। दहलीज़, जो कभी आशीर्वादों से पवित्र थी, अब बस जूतों की खटखट से भरी है, कमरे—गेस्ट रूम जैसे, जहाँ हर कोई आता है, ठहरता है, और चला जाता है। भाई-बहन की नोकझोंक खो गई, दादी की कहानियाँ किताबों में सो गईं, टीवी के शोर में गीत नहीं मिलते, हर आत्मा अब अकेलेपन का गीत गुनगुनाती है। घर की परिभाषा बदल गई— अब यहाँ प्यार का नहीं, बल्कि "कब आना है, कब जाना है" का हिसाब रखा जाता है। कभी घर आत्मा का मंदिर था, अब बस होटल का कमरा है— जहाँ दिल चेक-इन तो करता है, मगर अपनापन… चेक-आउट हो जाता है। डीबी-आर्यमौलिक

अवसर और जीवन

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अवसर और जीवन  अवसर रोज आते हैं, पर हम देख नहीं पाते, जीवन सब पाते हैं, पर क्यों सही से जी नहीं पाते। जैसे सुबह का उजाला दरवाज़े पर दस्तक देता है, पर सोई आँखें उसे बस सपनों में ही देख लेती हैं। क्षणों का यह मेला हर ओर बिखरा है, पर हम तो व्यस्तता की चादर में लिपटे हैं। कभी भविष्य की धुंध, कभी अतीत की याद, आज की मिठास खो जाती है उन बिखरे संवाद। सूरज जब भी उगता है, एक संकेत लाता है, “जागो, हे मानव, नया अवसर बुलाता है।” पंछियों की चहचहाहट, फूलों की महक, हर सांस कहती है—“जीवन को मत कर संकुचित।” पर हम भागते हैं छाया के पीछे, मृगतृष्णा में खोकर सच्चाई को भूल जाते हैं। अवसर सामने खड़ा मुस्कराता है, पर हम उसकी आँखों में झाँकने से कतराते हैं। जीवन तो एक नदी है— अनवरत, अनंत, अविरल। पर हम, तट पर बैठे, बस उसकी धारा को देखते रहते हैं। कभी कहते—“कल पार करेंगे”, कभी कहते—“अभी समय नहीं।” और धीरे-धीरे वही अवसर पानी की बूंदों सा हाथ से फिसल जाता है। सपनों की गठरी सबके पास होती है, पर उसे खोलने का साहस कम ही कोई कर पाता है। क्योंकि हर सपना जोखिम माँगता है, और हम सुविधा की नींद में सोए रहते ...

आज के समय में राम क्यों ज़रूरी हैं

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आज के समय में राम क्यों ज़रूरी हैं  १. प्रस्तावना युग बदले, ऋतु बदले, मानव के मन के रंग बदले, पर सत्य, मर्यादा, धर्म के दीप हर युग में वही रहे— क्योंकि राम वही रहे। राम केवल अयोध्या के राजकुमार नहीं, राम केवल वनवासी तपस्वी नहीं, राम केवल रावण-विजेता नहीं, राम तो जीवन के अनुशासन हैं, राम तो मनुष्य के चरित्र का स्पंदन हैं। --- २. वर्तमान का परिदृश्य आज का समाज भाग रहा है, लालच के मेले में डूब रहा है। रिश्ते मोल-भाव में बिकते हैं, वचन व्यापार में टूटते हैं, करुणा केवल किताबों में लिखी है, और आस्था अक्सर मंचों पर बेची जाती है। आज का मनुष्य— सोने की गद्दियों पर भी चैन से सो नहीं पाता, उसकी आत्मा भूखी है, उसके हृदय में मर्यादा प्यास से तड़प रही है। यहीं पर राम ज़रूरी हो जाते हैं। --- ३. राम का आदर्श पुत्र जब पुत्र पिता की आज्ञा भूल जाता है, और घर का बंधन स्वार्थ से टूट जाता है, राम का वनगमन स्मरण आना चाहिए— जहाँ सिंहासन उनके चरणों में था, फिर भी उन्होंने वनवास को स्वीकारा। आज के पुत्रों को राम चाहिए, जो दिखाएँ कि पिता की वाणी धर्म से भी ऊँची होती है। --- ४. राम का आदर्श भाई आ...